गोसाउनिक गीत
जय जय भैरवी असुर-भयाउनि
जय जय भैरवी असुर-भयाउनि, पसुपति-भामिनि माया।
सहज सुमति बर दिअहे गोसाउनि अनुगति गति तुअ पाया॥
बासर-रैनि सबासन सोभित चरन, चंद्रमनि चूड़ा।
कतओक दैत्य मारि मुँह मेलल, कतन उगिलि करु कूड़ा॥
सामर बरन, नयन अनुरंजित, जलद-जोग फुल कोका।
कट-कट बिकट ओठ-पुट पाँड़रि लिधुर-फेन उठ फोका॥
घन-घन-घनन धुधुर कत बाजए, हन-हन कर तुअ काता।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक, पुत्र बिसरु जनि माता॥
गीतका अर्थ
जय जय भैरवी असुर-भयाउनि
यह काव्य देवी भैरवी के भयानक और शक्तिशाली रूप का वर्णन करता है, जो राक्षसों को आतंकित करने वाली और उनके संहार का प्रतीक है। कवि ने देवी को शिवानी कहा है, जो शिव की शक्ति और पत्नी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनके चरणों को कवि ने अपने जीवन का एकमात्र सहारा बताया है और उनसे 'सहज-सुबुद्धि' का वरदान मांगा है। शवासन पर स्थित देवी के चरण और उनके मस्तक पर सजी चंद्रमणि उनकी महिमा को बढ़ाते हैं। इस वर्णन में देवी का चित्रण एक सर्वशक्तिमान और क्रोध से भरी देवी के रूप में हुआ है, जो अपने भक्तों की रक्षा और राक्षसों का नाश करती हैं।
देवी भैरवी के विकराल रूप का वर्णन करते हुए कवि ने उनके साँवले रंग, लाल-लाल आँखों और रक्त झाग से भरपूर मुख का चित्रण किया है। उनका मुख विकराल रूप से राक्षसों को निगलता है और उनके होंठों से निकली 'कट-कट' ध्वनि उनकी भयंकरता को दर्शाती है। यह ध्वनियाँ और दृश्यों का उपयोग उनके सर्वनाशकारी स्वभाव को व्यक्त करता है, जिसमें वह दानवों को खाकर उन्हें निष्क्रिय और निस्सार बना देती हैं। देवी की मेखला की झनकार और उनकी कृपाण की सदैव तैयार स्थिति, यह दर्शाती हैं कि वह हर पल युद्ध के लिए तत्पर हैं और उनकी उपस्थिति मात्र से राक्षस भयभीत हो जाते हैं।
अंत में, कवि विद्यापति देवी के चरणों में अपना निवेदन प्रस्तुत करते हैं कि "माता, पुत्र को कभी नहीं भूलो।" यह याचना मातृत्व की करुणा और अनुकंपा का प्रतीक है। यहाँ भयंकर और विनाशकारी देवी भैरवी के भीतर की दयालु और संवेदनशील माँ को पुकारा गया है। यह भाव बताता है कि भले ही देवी अपने रौद्र रूप में हैं, परंतु वे अपने भक्तों के प्रति स्नेहपूर्ण और सहायक हैं। यह काव्य देवी भैरवी की शक्ति, क्रोध और करुणा के अद्भुत संतुलन को दर्शाता है।
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