अनुवाद :

मनु जाहिं राचेउ गीतिकाव्य || सीता स्वयंवर || फुलवारी लीला || गौरी पूजन

विषय सूची

 सीता स्वयंवर

परिचय

महाराज जनक द्वारा लिया गया प्रण को अब इसे निष्पादित करने का समय था। महाराजा जनक ने चारों ओर घोषणा कर दी कि जो शिव के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाएगा वह मेरी पुत्री सीता से विवाह करेगा। सारे देश विदेश में या समाचार राजाओं के दरबार ओर रिसिओ के आश्रम में पहुचा। विभिन्न जगह से राजा और राजकुमारों इस स्वयंवर सभा में भाग लेने के लिए आए तो रिसीव सब भी अपना आशीर्वाद प्रदान करने के लिए आए। यहां ऋषि विश्वामित्र के पास भी सन्देश आया और वे भी राम और लक्ष्मण को लेकर मिथिला पहुंचे। श्री राम ने रास्ते में राक्षसि तारिका का वध किया और ऋषि गौतम की पत्नी अहिल्या को मुक्त कर दिया। राम और लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्र का सेवक या शिष्य बन कर मिथिला गए थे । मिथिला आने पर महाराज जनक ने महर्षि विश्वामित्र को आदर सहित सत्कार किया और स्वागत किया।


फुलवारी लीला






सुबह ऋषि विश्वामित्र पूजा करने जा रहे थे। उन्होंने राम और लक्ष्मण को फूलों की व्यवस्था करने का आदेश दिया। राम और लक्ष्मण पुष्प की व्यवस्था करने के लिए पुष्प वाटिका में चले गए । वहां पर सीता कुछ सहेलियों के साथ गौरी पूजन करने हेतु पुष्प लेने आई थी। इसी समय सीता और राम का प्रथम भेंट फुलवारी में होता है, और वह दोनों एक दूसरे को देखते ही रह जाते हैं।

तुलसीदास जी ने राम और सीता का फुलवारी भेंट को इस तरह से वर्णन करते हैं अर्थात सीताराम का प्रथम भेंट को तुलसीदास जी ने गीत लय में कुछ ऐसा कहा है।  

दोहा:

सुमिरी सिया नारद बचन उपजि प्रीति पुनीत।
चकित बिलोकति सकल दीसि जनू सिसु मृगी सभित ॥२२९॥

इस श्लोक का अर्थ कुछ इस प्रकार से होता है।
नारद के शब्दों को याद करके सीता के मन में एक शुद्ध प्रेम उत्पन्न हुआ।
वह विस्मय से सब कुछ देख रही है, मृगनयन इधर-उधर देख रहा है ॥२२९॥       


सीता गौरी पूजन करती है। जब सखियों ने सीता जी परवाश (प्यार से) को देखा तो सब डर गए और बोले- बहुत देर हो चुकी है। (अभी चलना चाहिए)। मैं कल फिर इसी समय आऊंगा, यह कहकर कि एक दोस्त अपने आप पर हंस पड़ा। सखी की यह रहस्यमयी बत सुनकर सीताजी चौंक गईं। देर हो चुकी थी, उसे अपनी माँ से डर लग रहा था। बहुत धैर्य के बाद वह श्री रामचंद्र जी को अपने हृदय में ले आई और (उनका ध्यान करते हुए) स्वयं को अपने पिता के अधीन जानकर वापस चली गईं।



गौरी पूजन

सीता गौरी पूजन करती है। यह जानकर कि शिव का धनुष कठोर था, वह अपने हृदय में श्री रामजी की एक काली मूर्ति लेकर चली गई। (शिव के धनुष की कठोरता को याद करके उन्हें चिंता हुई कि यह मधुर रघुनाथजी इसे कैसे तोड़ेंगे, पिता के मन्नत की स्मृति से उनके हृदय में क्रोध आ गया, इसलिए वे विलाप करने लगीं। ऐसा हुआ, फिर जैसे ही उन्हें उनकी शक्ति की याद आई। भगवान वह, वह खुश हो गई और उसके दिल में एक काली छवि के साथ चली गई।) जब भगवान श्री रामजी ने श्री जानकीजी के सुख, स्नेह, सौंदर्य और गुणों की खान को जाना, तब परमप्रेम की कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुंदर चित्त रूपी भित्ति पर चित्रित कर लिया। सीताजी पुनः भवानीजी के मंदिर में गईं और उनके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोलीं, हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! जय हो जय चकोरी, जो महादेवजी के मुख रूप में चन्द्रमा को निहारता है! हे हाथी मुखी गणेश और छह मुखी स्वामीकार्तिकजी की माता, आपकी जय! हे जगज्जनानी! हे बिजली के समान तेजस्वी शरीर वाले शरीर! आपकी जय हो!

देवी गौरी का खुब प्रसन्सा करहि हे ओर कहति हे मेरे मनोरथ को आप भलीभाँति जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं। इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर जानकीजी ने उनके चरण पकड़ लिए। गिरिजा जी ने सीता जी को माला खसाके आशीर्वाद दिया।


छन्द:

मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥॥
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥॥



इस श्लोक का अर्थ कुछ इस प्रकार से होता है।

जिसमें आपने मन लगाया है, आपको स्वभाव से वही सुंदर पुरुष (श्री रामचंद्रजी) मिलेगा। वह दया और सर्वज्ञ का खजाना है, आपकी विनम्रता और स्नेह को जानता है। इस प्रकार श्री गौरी जी का आशीर्वाद सुनकर जानकी जी सहित सभी मित्रों का हृदय प्रसन्न हो गया। तुलसीदासजी कहते हैं- सीताजी बार-बार भवानी की पूजा करने के बाद प्रसन्न मन से महल में लौट आईं। गौरीजी को जानकर सीताजी को जो खुशी हुई, वह अनुकूल है, कहा नहीं जा सकता। सुंदर मंगलों की जड़ें उनके बाएं अंगों पर फड़फड़ाने लगीं। राम जी सिता जी के बे मे सोचते सोचते रात कटालिये।


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